Wednesday 6 August 2014

Bhagat Sudama

भक्त सुदामा
Krishna_Sudama

प्रभु के भक्तों की अनेक कथाएं हैं, सुनते-सुनते आयु बीत जाती है पर कथाएं समाप्त नहीं होतीं| सुदामा श्री कृष्ण जी के बालसखा हुए हैं| उनके बाबत भाई गुरदास जी ने एक पउड़ी उच्चारण की है -

बिप सुदामा दालदी बाल सखाई मित्र सदाऐ |
लागू होई बाहमणी मिल जगदीस दलिद्र गवाऐ |
चलिया गिणदा गट्टीयां क्यों कर जाईये कौण मिलाऐ |
पहुता नगर दुआरका सिंघ दुआर खोलता जाए |
दूरहुं देख डंडउत कर छड सिंघासन हरि जी आऐ |
पहिले दे परदखना पैरीं पै के लै गल लाऐ |
चरणोदक लै पैर धोइ सिंघासन ऊपर बैठाऐ |
पुछे कुसल पिआर कर गुर सेवा की कथा सुनाऐ |
लै के तंदुल चबिओने विदा करै आगे पहुंचाऐ |
चार पदारथ सकुच पठाए |९|९०|

भाई गुरदास जी के कथन अनुसार सुदामा गोकुल नगरी का एक ब्राह्मण था| वह बड़ा निर्धन था| वह श्री कृष्ण जी के साथ एक ही पाठशाला में पढ़ा करता था| उस समय वह बच्चे थे| बचपन में कई बच्चों का आपस में बहुत प्यार हो जाता है, वे बच्चे चाहे गरीब हो या अमीर, अमीरी और गरीबी का फासला बचपन में कम होता है| सभी बच्चे या विद्यार्थी शुद्ध हृदय के साथ मित्र और भाई बने रहते हैं|

सुदामा और कृष्ण जी का आपस में अत्यन्त प्रेम था, वह सदा ही इकट्ठे रहते| जिस समय उनका गुरु उनको किसी कार्य के लिए भेजता तो वे इकट्ठे चले जाते, बेशक नगर में जाना हो या किसी जंगल में लकड़ी लेने| दोनों के प्रेम की बहुत चर्चा थी|

सुदामा जब पढ़ने के लिए जाता था तो उनकी माता उनके वस्त्र के पलड़े में थोड़े-से भुने हुए चने बांध दिया करती थी| सुदामा उनको खा लेता था, ऐसा ही होता रहा|

एक दिन गुरु जी ने श्री कृष्ण और सुदामा दोनों को जंगल की तरफ लकड़ियां लेने भेजा| जंगल में गए तो वर्ष शुरू हो गई| वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए| बैठे-बैठे सुदामा को याद आया कि उसके पास तो भुने हुए चने हैं, वह ही खा लिए जाए| वह श्री कृष्ण से छिपा कर चने खाने लगा| उसे इस तरह देख कर श्री कृष्ण जी ने पूछा-मित्र! क्या खा रहे हो?

सुदामा से उस समय झूठ बोला गया| उसने कहा-सर्दी के कारण दांत बज रहे हैं, खा तो कुछ नहीं रहा, मित्र!

उस समय सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण जी के मुख से यह शब्द निकल गया -'सुदामा! तुम तो बड़े कंगाल हो, चनों के लिए अपने मित्र से झूठ बोल दिया|'

यह कहने की देर थी कि सुदामा के गले दरिद्र और कंगाली पड़ गई, कंगाल तो वह पहले ही था| मगर अब तो श्री कृष्ण ने वचन कर दिया था| यह वचन जानबूझ कर नहीं सहज स्वभाव ही श्री कृष्ण के मुख से निकल गया, पर सत्य हुआ| सुदामा और अधिक कंगाल हो गया|

पाठशाला का समय खत्म हो गया और सुदामा अपने घर चला गया| विवाह हुआ, बच्चे हुए तथा उसके पश्चात माता-पिता का देहांत हो गया| कंगाली दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, कोई फर्क न पड़ा| दिन बीतने लगे| श्री कृष्ण जी राजा बन गए, उनकी महिमा बढ़ गई| वह भगवान रूप में पूजा जाने लगे तो सुदामा बड़ा खुश हो का अपनी पत्नी को बताया करता कि हम दोनों का परस्पर अटूट प्रेम होता था|

उसकी पत्नी कहने लगी -'यदि आपके ऐसे मित्र हैं और आप में इतना प्रेम था तो आप उनके पास जाओ और अपना हाल बताओ| हो सकता है कि कृपा तथा दया करके हमारी कंगाली दूर कर दें|'

अपनी पत्नी की यह बात सुन कर सुदामा ने कहा -'जाने के लिए तो सोचता हूं, पर जाऊं कैसे, श्री कृष्ण के पास जाने के लिए भी तो कुछ न कुछ चाहिए, आखिर हम बचपन के मित्र हैं|'

आखिर उसकी पत्नी ने बहुत ज़ोर दिया तो एक दिन सुदामा अपने मित्र श्री कृष्ण कि ओर चल पड़ा| उसकी पत्नी ने कुछ चावल, तरचौली उसको एक पोटली में बांध दिए| सुदामा मन में विचार करता कि मित्र को कैसे मिलेगा? क्या कहेगा? द्वारिका नगरी में पहुंच कर वह श्री कृष्ण जी का दरबार लगता था| प्रभु वहां इंसाफ और न्याय करते थे| सुदामा ने डरते और कांपते हुए द्वारपाल को कहा - 'मैंने राजा जी को मिलना है|'

द्वारपाल-'क्या नाम बताऊं जा कर?'

सुदामा-उनको कहना सुदामा ब्राह्मण आया है, आपके बचपन का मित्र| द्वारपाल यह संदेश ले कर अंदर चला गया| जब उसने श्री कृष्ण जी को संदेश दिया तो वह उसी पल सिंघासन से उठ कर नंगे पांव बाहर को भागे तथा बाहर आ कर सुदामा को गले लगा लिया| कुशलता पूछी तथा बड़े आदर और प्रेम से उसे अपने सिंघासन पर बिठाया और उसके पैर धोए| पास बिठा कर व्यंग्य के लहजे में कहा - लाओ मेरी भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है?

यह कह कर श्री कृष्ण ने सुदामा के वस्त्रों से बंधी हुई पोटली खोल ली और फक्के मार कर चबाने लगे| चबाते हुए वर देते गए तथा कहते रहे, "वाह! कितनी स्वादिष्ट है तरचौली! कितनी अच्छी है भाभी!"

सुदामा प्रसन्न हो गया| श्री कृष्ण ने मित्र को अपने पास रखा तथा खूब सेवा की गई| बड़े आदर से उसको भेजा| विदा होते समय न तो सुदामा ने श्री कृष्ण से अपनी निर्धनता बताते हुए कुछ मांगा तथा न ही मुरली मनोहर ने उसे कुछ दिया| सुदामा जिस तरह खाली हाथ दरबार की तरफ गया था, वैसे ही खाली हाथ वापिस घर को चल पड़ा| मार्ग में सोचता रहा कि घर जाकर अपनी पत्नी को क्या बताऊंगा? मित्र से क्या मांग कर लाया हूं|

सुदामा गोकुल पहुंचा| जब वह अपने मुहल्ले में पहुंचा तो उसे अपना घर ही न मिला| वह बड़ा हैरान हुआ| उसका कच्चा घर जो झौंपड़ी के बराबर घास फूस से बना गाय बांधने योग्य था, कहीं दिखाई न दिया| वह वहां खड़ा हो कर पूछना ही चाहता था कि इतने में उसका लड़का आ गया| उसने नए वस्त्र पहने हुए थे| 'पिता जी! आप बहुत समय लगा कर आए हो|.....द्वारिका से आए जिन आदमियों को आप ने भेजा था, वह यह महल बना गए हैं, सामान भी छोड़ गए हैं तथा बहुत सारे रुपये दे गए हैं| माता जी आपका ही इंतजार कर रहे हैं| आप आकर देखें कितना सुंदर महल बना है|'

अपने पुत्र से यह बात सुन कर तथा कच्चे घर की जगह सुन्दर महल देख कर वह समझ गया कि यह सब भगवान श्री कृष्ण की लीला है| श्री कृष्ण ने मुझे वहां अपने पास द्वारिका में रखा और मेरे पीछे से यहां पर यह लीला रचते रहे तथा मुझे बिल्कुल भी मालूम नहीं पड़ने दिया| महल इतना सुन्दर था कि, उस जैसा किसी दूसरे का शायद ही हो| शायद महल बनाने के लिए विश्वकर्मा जी स्वयं आए थे, तभी तो इतना सुन्दर महल बना| भगवान श्री कृष्ण की लीला देख कर सुदामा बहुत ही प्रसन्न था| उसके बिना कुछ बताए ही श्री कृष्ण जी सब कुछ समझ गए थे|

उस दिन के बाद सुदामा श्री कृष्ण की भक्ति में लग गया और भक्तों में गिने जाने लगा|

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Bhagat Meera Bai Ji

भक्त मीरा बाई जी

राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा!

परिचय:

मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी|

जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|

समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना न छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती| मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| उन्हें मरने की साजिशे रची जाने लगी| मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई|
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई||

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई|
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई||


मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है| स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|

नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ|
मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास||

उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शूद्र गुरु रविदास की भक्ति की|साधु - संतो की संगत की|

मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत हैं|

लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई|
रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताई|
डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|


हरमेन गोएटस ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परन्तु वह मौलिक नहीं| उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही| उसने भक्ति व प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया| चित्तौड़ के शासक कर्मकांड व राजसी वैभव में डूबकर उसे भूल चुके थे| किसी ने उसे ढूँढने का प्रयास नहीं किया|

अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|

साहितिक देन:

मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे -
हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|
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रक्षाबंधन की कहानी

रक्षाबंधन का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर बलि राजा के अभिमान को इसी दिन चकानाचूर किया था। इसलिए यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र राज्य में नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से यह त्योहार विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं।



रक्षाबंधन के संबंध में एक अन्य पौराणिक कथा भी प्रसिद्ध है। देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता हारने लगे, तब वे देवराज इंद्र के पास गए। देवताओं को भयभीत देखकर इंद्राणी ने उनके हाथों में रक्षासूत्र बाँध दिया। इससे देवताओं का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की। तभी से राखी बाँधने की प्रथा शुरू हुई। दूसरी मान्यता के अनुसार ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। इसलिए आज भी इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी बाँधते हैं।

रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक है। इस दिन बहन अपने भाई को प्यार से राखी बाँधती है और उसके लिए अनेक शुभकामनाएँ करती है। भाई अपनी बहन को यथाशक्ति उपहार देता है। बीते हुए बचपन की झूमती हुई याद भाई-बहन की आँखों के सामने नाचने लगती है। सचमुच, रक्षाबंधन का त्योहार हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाता है।

राखी के इन धागों ने अनेक कुरबानियाँ कराई हैं। चित्तौड़ की राजमाता कर्मवती ने मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजकर अपना भाई बनाया था और वह भी संकट के समय बहन कर्मवती की रक्षा के लिए चित्तौड़ आ पहुँचा था। आजकल तो बहन भाई को राखी बाँध देती है और भाई बहन को कुछ उपहार देकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेता है। लोग इस बात को भूल गए हैं कि राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।

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Manav Seva hi Ishwar Seva hai...

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