Tuesday 25 September 2012

Radhastami celebration at ISKCON, Kolkata


Invisible all the year but visible once a year: The divine feet of Srimati Radharani

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Radhastami, the appearance day of Srimati Radharani, was celebrated with great fanfare at

Iskcon, Kolkata on 23rd Sep, 2012. Devotees in large numbers started assembling in the temple

since morning on this auspicious occasion. The program began with Mangala Arati at 4:30 a.m.

Radhastami is the only day in the entire year when the devotees get an opportunity to take

darshan of the beautiful lotus feet of Srimati Radharani. The most awaited moment unfolded at

8:30 a.m. & everyone reverentially took darshan of the lotus feet of Srimati Radharani.

On this auspicious occasion the entire temple was very beautifully decorated. Dressed in new

garment, decorated with colorful flowers, ornaments and lotus petals, Srimati Radharani

enchanted everyone. Her lotus like face was shining brilliantly.

Amal Puran Das, a senior devotee of Iskcon Kolkata, gave Srimad – Bhagavatam class. He

explained that Krishna has 80,000 gopis, among them 108 gopis are best. Among 108 gopis, 8

gopis are best. Among 8 gopis, 2 gopis – Radharani and Chandravali - are the best. Among the 2

gopis, Radharani is the topmost. Srimati Radharani is very dear to Krishna. So, we get mercy of

Krishna only by the mercy of Srimati Radharani.

Grand Abhisheka and Maha – arti was held from 11:30 a.m. onwards. Bhajans and Hare Krishna

kirtan which accompanied the ceremony surcharged the entire atmosphere. Finally everyone

enjoyed delicious Krishna Prasad.

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Friday 21 September 2012

भगवती दुर्गा की आराधना क्यों और कैसे



भगवती दुर्गा की आराधना का सर्वोत्तम अवसर नवरात्र हैं जिसके हर दिन भगवती के नवीन स्वरूपों की पूजा-अर्चना होती है और जप-पाठ आदि के धार्मिक अनुष्ठान आयोजित होते हैं। श्रद्धालु भक्त भगवती के नव स्वरूपों की पूजा कर कृतार्थ होते हैं और देवी की अनुकपा से उनके सभी मनोरथ पूरे होते हैं। चाहे कोई भी संकट हों, विघ्न-बाधाओं के बादल प्रलय ढाने को तैयार हों, ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव हों – हर प्रकार की कठिनाइयां भगवती दुर्गा के आशीर्वाद से दूर हो जाती हैं। यही वजह है कि सनातन काल से लोग भगवती की नवरात्रों में विशेष पूजा किया करते हैं। नवरात्र के अवसर पर प्रस्तुत हैं माकण्डेय पुराण से संकलित देवी माहात्म्य को रेखांकित करने वाली प्रथम चरित्र-कथा जिसमें भगवती ने मधु कैटभ दैत्य का संहार किया था। कौष्टुकि मुनि के पूछने पर महर्षि मार्कण्डेय जी ने उन्हें श्री शनिदेव के भ्राता सावर्णि मनु की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाने के बाद उनके मन्वंतर के स्वामी बनने का आख्यान सुनाने के क्रम में भगवती के प्रथम चरित्र का भी गान किया।
मार्कण्डेय जी बोले – सूर्य के पुत्र साविर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो। सूर्य कुमार महाभाग सवर्णि भगवती महामाया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ। पूर्वकाल की बात है,स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था । वे प्रजा का अपने और पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे। फिर भी उस समय कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये। राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे, तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये। तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा) किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया।
राजा का बल क्षीण हो चला था, इसलिये उनके दुष्ट, बलवान एवं दुरात्मा मंत्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को वहाँ से हथिया लिया। सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये। वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिसंक जीव (अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर) परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया और वे उन मुनि श्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक वहां रहे। फिर ममता से आकृष्टचित्त होकर उस आश्रम में इस प्रकार चिंता करने लगे – पूर्वकाल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वहीं नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं को अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगों के द्वारा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना भी खाली हो जायेगा। ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे।
एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा – भाई, तुम कौन हो? यहां तुम्हारे आने का क्या कारण है? तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने से दिखायी देते हो? राजा सुरथ का यह प्रेम पूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा – राजन्! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हँ। मेरा नाम समाधि है। मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्र से वंचित हूँ। मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुखी होकर मैं वन में चला आया हँ। यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों का कुशल है या नहीं। इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं, अथवा उन्हें कोई कष्ट है? वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं?
राजा ने पूछा – जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह क्यों है?
वैश्य बाला – आप मेरे विषय में जो बात कहते हैं, वह सब ठीक है। किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के प्रति अनुराग को तिलाञ्जलि दे मुझे घर से निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। महामते, गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेम मग्न हो रहा है, यह क्या है – इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हँ और मेरा हृदय अत्यन्त दु:खित हो रहा है। उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है, तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करुँ।
मार्कण्डेयजी कहते हैं – तदन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरंभ किया।
राजा ने कहा – भगवन् मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये। मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दु:ख देती है। मुनिश्रेष्ठ जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता हो रही है। यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है, यह क्या है? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसको छोड़ दिया है। स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी इसके हृदय में उनके प्रति अत्यन्त स्नेह है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुखी हैं। जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममता जनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग हम दोनों समझदार है,तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है? विवेकशून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है।
ऋषि बोले – महाभाग, विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है। इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं। कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते, और दूसरे रात में ही नहीं देखते। तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते। पशु-पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदि की होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्राय: दोनों में समान ही हैं। समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो, यह स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं। नरश्रेष्ठ, क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं? यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरण की परम्परा) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये जाते हैं। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवाती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस संपूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं। वे ही पराविद्या, संसार-बंधन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा संपूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
राजा ने पूछा – भगवन, जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं? ब्रह्मन्! उनका अविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे, उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।
ऋषि बोले – राजन्! वास्तव मे तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकटय अनेक प्रकार से होता है। वह मुझ से सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं को कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्प के अन्त में जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णव में निमग् हो रहा था और सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों की मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मुध और कैटभ के नाम से विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये।
भगवान विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा तो एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा जी ने कहा – देवि तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोह रूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लाज्जा , पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो। पर और अपर – सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हींहो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है। जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार णकरते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है। मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है। देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्घर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
ऋषि कहते हैं – राजन्! जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान जनार्दन उस एकावर्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था, इसलिये वे भगवान विष्णु से कहने लगे – हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
ऋषि कहते हैं – इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत में जल ही जल देखा तब कमलनयन भगवान से कहा – जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।

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दुर्गा सप्तशती में भगवती दुर्गा के सुन्दर इतिहास के साथ-साथ गूढ़ रहस्यों का भी वर्णन किया गया है। राजा सुरथ ने भी दुर्गा आराधना से ही अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया था। न जाने कितने की आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा मंत्र साधक माँ दुर्गा के सिद्ध मंत्र की साधना कर अपने मनोरथों को पूरा करने में सफलता प्राप्त कर चुके हैं। नवरात्रों अथवा ग्रहण काल में दुर्गा मंत्र की साधना कर आप भी अपने मनोरथ पूर्ण कर सकते हैं। यह मंत्र साधना सभी प्रकार के फल प्रदान करती है। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम: – यह आठ अक्षरों का भगवती दुर्गा का सिद्धि मंत्र है जिसका पाठ रक्तचन्दन की 108 दाने की माला से प्रतिदिन शुद्ध अवस्था में साधक को करना चाहिये।

साधना विधि – नवरात्र, सूर्य या चन्द्र ग्रहण के समय अथवा किसी भी शुभ मुहूर्त में इस साधना को करें। नवरात्र में पूरे 9 दिनों तक नियम के साथ दैनिक पूजन और मंत्र जप करें। ग्रहण काल में जितना समय ग्रहणकाल रहता है उतने ही समय तक मंत्र जाप साधना करनी चाहिये। नवरात्र के 9 दिनों की साधना में प्रतिदिन 27 माला जपने का विधान है। 9 दिनों में 24000 मंत्र जप के बाद 9वें दिन इसी मंत्र को पढ़ते हुए 108 बार आहुति देकर हवन करना चाहिये। इस प्रकार यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। इस दुर्गा मंत्र का प्रभाव अचूक है।
यदि साधक ने 9 दिनों तक नियमित मंत्र जप और हवन की क्रिया पूरी कर ली तो वह कभी भी इस मंत्र को पढ़कर, दूब से जल छिड़कते हुये किसी की आपदाओं या बाधाओं का निवारण कर सकता है – चाहे कोई भी आर्थिक संकट हो, भूतादि ग्रहों की पीड़ा हो, प्रेत-पिशाच बाधा हो, दुर्भाग्य हो, नवग्रह पीड़ा हो, रोग अथवा बीमारी हो, शत्रु षडयंत्र की पीडा हो।
दुर्गाजी की प्रतिमा चित्र तथा श्री सिद्ध दुर्गा यंत्र जिसे नवार्ण मंत्र से प्रतिष्ठित किया गया हो। उसे लाल रंग के शुद्ध रेशमी कपड़े पर आसीन करके स्नान करायें। लाल चंदन, पुष्प, दीप व नैवेद्य अर्पित करें, फिर दुर्गाजी की स्तुति और ध्यान करें -

अध्यारूढ़ां मृगेन्द्रं सजल जलधर श्यामलां हस्त पद्मां।
शूलं वाणं कृपाणं त्वसि जलज गदा चाप पाशान् वहन्ती।
चंद्रोतंशां त्रिनेत्रां चितसृणिरसिमाखेटं विभ्रतीभि:।
कन्याभि: सेव्यमाना प्रतिभट भयदां शूलिनीं भावयाम:॥

ध्यान स्तुति के बाद परम तन्मय भाव से उपर्युक्त सिद्ध दुर्गा मंत्र का जाप करे। सिद्ध दुर्गा साधना के लिये सर्वप्रथम शुद्ध स्थान पर आसन बिछाकर, पूजा की सारी सामग्री पहले से वहां रख लें। ताम्र पत्र अथवा भोजपत्र पर रचित श्री सिद्ध दुर्गा यंत्र काठ के पीढ़े पर एक कपड़ा बिछाकर उस पर स्थापित करें। यंत्र तथा मूर्ति अथवा चित्र जो भी हो उसकी रक्त चंदन, पुष्प, अक्षत, धूप-दीपादि से पूजा करके रक्त चंदन की 108 दाने की माला से दुर्गा अष्टाक्षर मंत्र का 27 माला जप करें। जप के समय घी का दीपक दुर्गाजी के सम्मुख जलाये। विकल्प के रूप में मीठे तेल के दीपक से भी काम चलाया जा सकता है। इस उपासना के लिये ऊनी आसन का ही प्रयोज्य होता है। माला लाल चंदन की, कुशाग्रंथि की अथवा रुद्राक्ष की भी ले सकते हैं। रक्त चंदन की माला सर्वश्रेष्ठ होती है। जप के लिये अर्द्धरात्रि का समय उत्तम होता है।
मंत्र जप समाप्त होने पर पूजा से उठने के पूर्व क्षमा याचना करते हुये दुर्गा जीे की स्तुति पढ़नी चाहिये। स्तुति पढ़ने या याद करने में असुविधा हो तो के वल श्री दुर्गायै नम: का सात बार जप करके देवी की प्रतिमा को क्षमा याचना हेतु प्रणाम करना चाहिये। मंत्र जप हो जाने पर कभी भी, किसी भी प्रकार प्रतिकूलता के शमन की आवश्यकता पडने पर इसे पढ़ते हुए उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है।


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Tuesday 18 September 2012

महाराष्ट्र में गणेशोत्सव की चमक औरों से अलग




गणेश चतुर्थी वैसे तो पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन महाराष्ट्र में इस त्योहार का एक अलग ही महत्व है। गणेश चतुर्थी से शुरू होकर अनन्त चतुर्दशी (अनंत चौदस) तक चलने वाला 10 दिवसीय गणेशोत्सव मनाया जाता है।
मान्यता है कि इन दस दिनों के दौरान यदि श्रद्धा एवं विधि-विधान के साथ गणेश जी की पूजा किया जाए तो जीवन के समस्त बाधाओं का अन्त कर विघ्नहर्ता अपने भक्तों पर सौभाग्य, समृद्धि एवं सुखों की बारिश करते हैं।
दस दिनों तक चलने वाला यह त्योहार हिन्दुओं की आस्था का एक ऐसा अद्भुत प्रमाण है जिसमें शिव-पार्वती नंदन श्री गणेश की प्रतिमा को घरों, मन्दिरों अथवा पंडालों में साज-श्रृंगार के साथ चतुर्थी को स्थापित किया जाता है। दस दिनों तक गणेश प्रतिमा का नित्य विधिपूर्वक पूजन किया जाता है और ग्यारहवें दिन इस प्रतिमा का बड़े धूम-धाम से विसर्जन कर दिया जाता है।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी के सिद्धि विनायक स्वरूप की पूजा होती है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन गणेश जी दोपहर में अवतरित हुए थे। इसीलिए यह गणेश चतुर्थी विशेष फलदायी बताई जाती है। पूरे देश में यह त्योहार गणेशोत्सव के नाम से प्रसिद्ध है। भारत में यह त्योहार प्राचीन काल से ही हिंदू परिवारों में मनाया जाता है। इस दौरान देश में वैदिक सनातन पूजा पद्धति से अर्चना के साथ-साथ अनेक लोक सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें नृत्यनाटिका, रंगोली, चित्रकला प्रतियोगिता, हल्दी उत्सव आदि प्रमुख होते हैं।
गणेशोत्सव में प्रतिष्ठा से विसर्जन तक विधि-विधान से की जाने वाली पूजा एक विशेष अनुष्ठान की तरह होती है जिसमें वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से की जाने वाली पूजा दर्शनीय होती है। महाआरती और पुष्पांजलि का नजारा तो देखने योग्य होता है।
गणेश चतुर्थी से जुड़ी मान्यताएं
यदि गणेश चतुर्थी का दिन रविवार या मंगलवार हो तो इसे महाचतुर्थी का योग कहा जाता है। और इस महाचतुर्थी के दिन चन्द्र दर्शन करना वर्जित है। श्रीमद्भागवत्‌ में कथा आरती है। इस दिन चांद देखने से ही भगवान कृष्ण को मिथ्या कलंक का दोष लगा था जिससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने विधिवत गणेश चतुर्थी का व्रत किया था। भविष्य पुराण में इस तिथि को शिवा, शांत और सुखा चतुर्थी भी कहा है।
कौन हैं विघ्नहर्ता गणेश
गणेशजी का महत्व भारतीय धर्मों में सर्वोपरि है। उन्हें हर नए कार्य, हर बाधा या विघ्न के समय बड़ी उम्मीद से याद किया जाता है और दुःखों, मुसीबतों से छुटकारा पाया जाता है। श्री गणेशजी को विघ्न विनाशक माना गया है। गणेशजी को देवसमाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेशजी का जन्म हुआ था। गणेशजी को बुद्धि का देवता भी माना जाता है। गणेशजी का वाहन चूहा है। इनकी दो पत्नियां भी हैं जिन्हें रिद्धि और सिद्धि के नाम से जाना जाता है। इनका सर्वप्रिय भोग मोदक यानी लड्डू है।
कैसे मनाते हैं गणेशोत्सव
गणेशोत्सव संपूर्ण विश्व में बड़े ही हर्ष एवं आस्था के साथ मनाया जाता है। घर-घर में गणेशजी की पूजा होती है। इस दौरान लोग मोहल्लों, चौराहों पर गणेशजी की स्थापना, आरती, पूजा करते हैं। बड़े जोरों से गीत बजाते, प्रसाद बांटते हैं। अनंत चतुर्दशी के दिन गणेशजी की मूर्ति को पूरे विधि विधान के साथ समुद्र, नदी या तालाब में विसर्जित कर अपने घरों को लौट आते हैं।
कैसे करें गणेश जी की पूजा
गणेशोत्सव के दौरान प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो कर 'मम सर्वकर्मसिद्धये सिद्धिविनायक पूजनमहं करिष्ये' मंत्र से संकल्प लें। इसके बाद सोने, तांबे, मिट्टी अथवा गोबर से गणेशजी की प्रतिमा बनाएं। गणेशजी की प्रतिमा को कोरे कलश में जल भरकर मुंह पर कोरा कपड़ा बांधकर उस पर स्थापित करें। इसके बाद मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाकर उनका पूजन करें और आरती करें।  फिर दक्षिणा अर्पित करके इक्कीस लड्डुओं का भोग लगाएं। इनमें से पांच लड्डू गणेशजी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बांट दें।
जो गणेश व्रत या पूजा करता है उसे मनोवांछित फल तथा श्रीगणेश प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। पूजन से पहले नित्यादि क्रियाओं से निवृत्त होकर शुद्ध आसन में बैठकर सभी पूजन सामग्री को एकत्रित कर पुष्प, धूप, दीप, कपूर, रोली, मौली लाल, चंदन, मोदक आदि एकत्रित कर क्रमश: पूजा करें।
पूजा के दौरान जरूर याद रखें कि भगवान श्रीगणेश को तुलसी दल और तुलसी पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए। उन्हें, शुद्ध स्थान से चुनी हुई दूर्वा को धोकर ही चढ़ाना चाहिए।
श्रीगणेश भगवान को मोदक यानी लड्डू अधिक प्रिय होते हैं इसलिए उन्हें देशी घी से बने मोदक का प्रसाद ही चढ़ाना चाहिए। ऐसा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। श्रीगणेश के अलावा शिव और गौरी, नन्दी, कार्तिकेय सहित सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा षोड़षोपचार विधि रूप से करना सर्वोत्तम माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार श्रीगणेश की पार्थिव प्रतिमा बनाकर उसे प्राण-प्रतिष्ठित कर पूजन-अर्चन के बाद विसर्जित कर देना चाहिए। अतः भजन-कीर्तन और सांस्कृतिक आयोजनों के बाद प्रतिमा का विसर्जन करना नहीं भूलें।
क्या है गणेश पूजन का फल
वस्त्र से ढंका कलश, दक्षिणा तथा गणेश प्रतिमा आचार्य को समर्पित करके गणेशजी के विसर्जन का उत्तम विधान माना गया है। गणेशजी का यह पूजन करने से बुद्धि और रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।
गणेश जी को गजानन कहते हैं इसका संकेत है हाथी की तरह धैर्यवान और बुद्धिमान होना पड़ेगा।
गणेश जी को विघ्नहर्ता भी कहते हैं। अतः इसके प्रतीक के रूप में उनके हाथ में परशुदंड भी है।
गणेश जी रिद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं। अतः इनके पूजन से आपके सुख-संपदा और धन-धान्य की कमी नहीं होती है।
पूजा का समय
वैसे तो भगवान की पूजा कभी भी की जा सकती है परन्तु गणेशजी की पूजा सायंकाल के समय की जाए तो बेहतर माना जाता है। पूजन के बाद सर झुकाकर चंद्रमा को अर्घ्य देना चाहिए और ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा जरूर देनी चाहिए। सिर झुकाकर चंद्रमा को अर्घ्य देने के पीछे भी कारण व्याप्त है। माना जाता है कि जहां तक संभव हो, इस दिन चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए। भूल बस या कारण बस इस दिन चंद्रमा के दर्शन हो जाते हैं तो आप कलंक के भागी बन जाते हैं। फिर भी घबराएं नहीं! हमारे शास्त्रों में इस तरह की भूल बस होने वाली घटनाओं से मुक्ति पाने के लिए विधान भी मौजूद हैं। ऐसा होने पर गणेश चतुर्थी व्रत कर कलंक से मुक्ति पाई जा सकती है।
बप्पा की पूजा में गणपति यंत्र का महत्व
गणेश-पूजन के दस दिनों के दौरान गणपति यंत्र के पूजन का विशेष महत्व है। जीवन को सुख-समृद्धि एवं सौभाग्य से परिपूर्ण करने के लिए इस यंत्र के पूजन का विशेष महत्व है।
चाहे किसी नए व्यापार की शुरुआत हो, भवन-निर्माण का आरम्भ हो या आपकी किसी किताब, पेन्टिंग या यात्रा का शुभारम्भ हो, गणपति यन्त्र आपके कार्य में आने वाली हर प्रकार की बाधा से आपकी रक्षा करता है। जो इस यन्त्र का पूजन करता है वह अपने हर कार्य में सफल रहता है। इस यन्त्र को आप अपने पूजा के स्थान पर स्थापित कर सकते हैं।
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मंगल मूर्ति और कामना पूर्ति करते हैं ये




हर मनोरथ पूरा करने वाले भगवान श्री सिद्धिविनायक की प्रतिमा लगभग ढाई फुट ऊंची और दो फीट चौड़ी है। काले पाषाण के एक ही भाग पर सुंदर नक्काशी कर प्रतिमा बनाई गई है। प्रतिमा पर सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता है। जिससे इस प्रतिमा का देवीय स्वरुप अद्भुत और जाग्रत दिखाई देता है। श्री सिद्धीविनायक की सूंड दाएं ओर मुड़ी हुई है। दाएं सूंड वाली गणेश प्रतिमा और मंदिर को बहुत सिद्धी देने वाला माना जाता है। ऐसे गणेश शीघ्र कृपा करने वाले और प्रसन्न होने वाले माने जाते हैं। भगवान की चार भुजाएं हैं। ऊपरी दांए हाथ में कमल का फू ल और बाएं हाथ में फर्शा लिए हैं। निचले दाएं हाथ में जपमाला और बाएं हाथ में मोदक यानि श्री गणेश के प्रिय व्यंजन लड्डु का पात्र है।
भगवान श्री गणेश की प्रतिमा पर पवित्र सूत्र के रुप में यज्ञोपवित की भांति सर्प बांए कंधे से होकर दाहिने पेट से होता हुआ लिपटा हुआ है। श्री सिद्धिविनायक के मस्तक पर तीसरा नेत्र दिखाई देता है।
भगवान श्री गणेश के दोनों ओर देवी रिद्धि और सिद्धि की प्रतिमाए हैं, जो सफ लता और समृद्धि की प्रतीक हैं। मंदिर में चांदी के बने दो चूहों की प्रतिमा भी है। ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश के यह वाहन भक्तों की इच्छाओं को भगवान तक पहुंचाते हैं। इसलिए मंदिर में आने वाले भक्त मूषक के पास जाकर प्रसाद चढ़ाते हैं और उसके कानों में जाकर धीरे से अपनी कामना बताते हैं। भक्तों की आस्था है कि यह कामना भगवान श्री सिद्धि विनायक पूरी करते हैं। यह मंदिर में भगवान श्री गणेश के साथ रिद्धि-सिद्धि पूजनीय है, इसलिए यह मंदिर श्री सिद्धिविनायक मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यहां हर मास की दोनों पक्षों में आने वाली विनायक, संकष्टी चतुर्थी, बुधवार और गणेशोत्सव पर हिन्दू धर्म के साथ-साथ अन्य धर्म के लोग भी अपनी मन्नतें पूरी होने की कामना से दर्शन के लिए पैदल चले आते हैं।

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पितृपक्ष पर विशेष



प्रति वर्ष आश्विन मास का संपूर्ण कृष्ण पक्ष "श्राद्धपक्ष' अथवा "महालयपक्ष' कहलाता है। इसे "पितृपक्ष' भी कहते हैं। यह पितृपक्ष एक प्रकार से पितरों का सामूहिक मेला होता है। इस पक्ष में सभी पितर पृथ्वीलोक में रहने वाले अपने-अपने सगे-संबंधियों के यहां बिना आह्वान किए भी पहुंचते हैं तथा अपने सगे-संबंधियों द्वारा प्रदान किए "कव्य' से परितृप्त होकर उन्हें अनेकानेक शुभाशीर्वाद प्रदान करते हैं, जिनके फलस्वरूप कव्य प्रदान करने वाले श्राद्धकर्ता अनेकश: सुखोपभोग प्राप्त करते हैं।
 अत: श्राद्ध पक्ष में अपने पितरों की संतुष्टि हेतु तथा अनंत व अक्षय तृप्ति हेतु एवं उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करने हेतु प्रत्येक मनुष्य को अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए। जो लोग अपने पूर्वजों अर्थात्‌ पितरों की संपत्ति का उपभोग तो करते हैं, लेकिन उनका श्राद्ध नहीं करते, ऐसे लोग अपने ही पितरों द्वारा शप्त होकर नाना प्रकार के दुखों का भाजन बनते हैं।
जिस मृत पिता के एक से अधिक पुत्र हों और उनमें पिता की धन-संपत्ति का बंटवारा न हुआ हो तथा सभी संयुक्त रूप से एक जगह ही रहते हों तो ऐसी स्थिति में पिता का श्राद्ध आदि पितृकर्म सबसे बड़े पुत्र को ही करना चाहिए। सब भाइयों को अलग-अलग नहीं करना चाहिए। यदि मृत पिता की संपत्ति का बंटवारा हो चुका हो तथा सभी पुत्र अलग-अलग रहते हों तो सभी पुत्रों को अलग-अलग श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक सनातमधर्मी को अपने पूर्व की तीन पीढ़ियों-पिता, पितामही तथा प्रपितामही के साथ ही अपने नाना तथा नानी का भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इनके अतिरिक्त उपाध्याय, गुरु, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा, भाई, बहनोई, भतीजा, शिष्य, जामाता, भानजा, फूफा, मौसा, पुत्र, मित्र, विमाता के पिता एवं इनकी पत्नियों का भी श्राद्ध करने का शास्त्रों में निर्देश दिया गया है। इन सभी दिवंगत व्यक्तियों की पुण्यतिथि के दिन ही इनका श्राद्ध करना चाहिए। मृत्युतिथि से तात्पर्य उस तिथि से है जो तिथि अंतिम-श्वास परित्याग के समय विमान हो। उसी तिथि को श्राद्धपक्ष में दोपहर के समय कुतप वेला में (दोपहर के समय साढ़े बारह बजे से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। लेकिन निम्न छह बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए -
1. जिन व्यक्तियों की सामान्य एवं स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को कदापि नहीं करना चाहिए, बल्कि पितृपक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या के दिन उनका श्राद्ध करना चाहिए।
2. जिन व्यक्तियों की अपमृत्यु हुई हो अर्थात्‌ किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्त्रप्रहार, हत्या, आत्महत्या या अन्य किसी प्रकार से अस्वाभाविक मृत्यु हुई हो, तो उनका श्राद्ध मृत्युतिथि वाले दिन कदापि नहीं करना चाहिए। अपमृत्यु वाले व्यक्तियों का श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो।
3. सौभाग्यवती स्त्रियों की अर्थात्‌ पति के जीवित रहते हुए ही मरने वाली सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध भी केवल पितृपक्ष की नवमी तिथि को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो।
4. संन्यासियों का श्राद्ध केवल पितृपक्ष की द्वादशी को ही किया जाता है, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो।
5. नाना तथा नानी का श्राद्ध भी केवल अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो।
6. पूर्णिमा केदिन स्वाभाविक रूप से मरनेवालों का श्राद्ध भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को करना चाहिए।

बाईं सूंड़ वाले गणपति ज्यादा शुभ?


सिद्ध माने जाते हैं बाईं सूंड़ वाले गणपति


गणपति प्रथम पूज्य हैं। गणपति की आराधना जितनी सरल है उतनी ही कठिन भी है। गणपति की प्रतिमा को लेकर एक जिज्ञासा हमेशा रहती है कि उनकी सूंड़ किस दिशा में होना चाहिए। कहीं दाईं ओर तो कहीं बाईं ओर सूंड वाले गजानन दिखलाई देते हैं। लेकिन बाईं ओर सूंड़ वाले गणपति ज्यादा सिद्ध माने जाते हैं।
माना जाता है कि बाईं ओर की सूंड़ किए गणपति हमेशा ही सकारात्मक नतीजे देते हैं। वैसे भी गणपति को बुद्धि का देवता कहा जाता है। यदि विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो बुद्धि दो भागों में बटीं होती है। दाईं तरफ के हिस्से को कर्म प्रधान कार्यों में महारत हासिल होती है जबकि बाएं तरफ का हिस्सा रचनात्मकता में प्रवीण होता है।
बाईं सूंड वाले गणपति रचनात्मक बुद्धि के प्रतीक माने जाते हैं।
जिस किसी भी घर, दुकान, प्रतिष्ठान आदि में बाईं सूंड़ वाले गणपति की प्रतिमा स्थापित की जाती है वहां हमेशा रचनात्मक कार्यों के प्रति लगाव बना रहता है। ऐसा स्थान हमेशा प्रगति करता है। ऐसे स्थान पर विध्वंस और नकारात्मक विचारों का अभाव होता है।

Tuesday 11 September 2012

सम्पादकीय-सितम्बर 2012



पितर देवो भव!


नातन हिन्दू धर्म में मान्यता है कि माता-पिता को साक्षात्‌ जीवित देवता माना गया है। इस नश्वर शरीर को छोड़ने के बाद में बैंकुंठ में देवताओं के समूह में शामिल हो जाते हैं और वहीं से अपने बच्चों, अपने परिवार को आशीर्वाद देते रहते हैं, उनका मंगल करते हैं। किन्तु तेजी से बदलते समय के साथ पितर देवो भव की यह श्रेष्ठ परम्परा भी बदलती जा रही है। पहले जहां लोग शुभ कार्य के लिए जाते समय पितों का चित्र, पितरों को पानी साथ रखते थे, वहीं आज की तथाकथित आधुनिक युवा पीढ़ी इसे दकियानूसी परम्परा करार देते हुए इसे भूलती जा रही है। अपने को अति सभ्य मानने वाली नयी पीढ़ी के पॉकेट और बैग में उनके पसंदीदा हीरो, हिरोइन, क्रिकेटरों के चित्र मिलते हैं। अपने पितरों के फोटो होना, उन्हें नियमत: प्रणाम करना तो दूर की बात है, कितने लोगों को तो अपने दादा, परदादा, दादी, परदादी के नाम तक याद नहीं हैं।
पश्चिमी सभ्यता के रंग में डूबी युवा पीढ़ी बड़े-बुजुर्गों की बात सुनने और मानने को तैयार नहीं है। बिना रोक-टोक के, अपने ढंग की स्वच्छंद जिन्दगी जीने के लिए सभी सीमायें, लक्ष्मण रेखा पार करने को उतारू है। बड़े-बुजुर्ग भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पितृपक्ष में 15 दिन तक तर्पण करने, अग्रासन निकालने, उनकी तिथि पर नियमपूर्वक श्राद्ध कर्म करने को अब झंझट समझा जाने लगा है। अब लोग इससे बचने के लिए गया आदि तीर्थों में पितरों को बैठा देते हैं। ताकि श्राद्ध-तर्पण कर्म से मुक्ति मिल जाए। ऐसे में उनके बच्चे क्या सीखेंगे। इतिहास बताता है कि पितरगण चाहे धरती पर हों, चाहे स्वर्गलोक में, अपने परिवार का मंगल करते रहते हैं। किन्तु दु:खद पहलू यह है कि आज उन्हें समाज भूलता जा रहा है। पितृपक्ष के मौके पर समाज के वरिष्ठ लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने बच्चों को इस बारे में जानकारी देंगे ताकि श्रद्धा और विश्वास की मंगलकारी यह पुनीत परम्परा कायम रहे और जनमानस का हित होता रहे।

- संजय अग्रवाल


Monday 10 September 2012

सभा-संस्था समाचार, सितम्बर-।।

भुकैलाधाम, खिदिरपुर में 1008 कुण्डीय गायत्री अश्वमेध यज्ञ 21 दिसंबर से

कोलकाता। विश्व गायत्री जन-कल्याण केंद्र द्वारा भुकैलाशधाम खिदिरपुर में 1008 कुण्डीय गायत्री अश्वमेध यज्ञ का आयोजन 21 से 25 दिसंबर तक किया गया है। मुख्य यजमान श्री कृष्ण कुमार सिंघानिया के यजमनत्व में यह 11वां गायत्री अश्वमेध यज्ञ है। अब तक 10 यज्ञ हावड़ा, बीकानेर, जोधपुर, सीकर, झुन्झनू, जयपुर, लुधियाना, अमृतसर, रेवाड़ी शहरों में सफलता पूर्वक संपन्न हो चुके हैं। संस्था के चेयरमैन श्रवण कुमार अग्रवाल के अनुसार प्रथम दिवस विराट कलश एवं शोभायात्रा निकलेगी।


श्री बाल हनुमान मंदिर, लेकटाउन में सवा लाख हनुमान चालीसा पाठ  महायज्ञ 

कोलकाता। श्री बाल हनुमान मंदिर, लेकटाउन धाम के नवनिर्माण प्रकल्प हेतु षष्टम श्री श्री सवा लाख हनुमान चालीसा पाठ महायज्ञ का आयोजन 25 अगस्त से शुरू हुआ है जो 16 सितम्बर तक चलेगा। प्रथम दिवस 25 अगस्त को प्रातः मंदिर प्रांगन से ध्वजा शोभायात्रा निकली गई, जो बांगुड़ एवेंन्यू जैसोर रोड, लालबाबा सेवा सदन, लेकटाउन होते हुए मंदिर पहुंची। नित्य प्रातः 8 से दोपहर 1.30 बजे तथा सायं 4 से 8.30 बजे तक भक्तों ने हनुमान चालीसा पाठ किया। कार्यक्रम के अंतिम दिन 16 सितम्बर को हवन, भंडारा के बाद सायंकाल सुप्रसिद्ध कलाकारों द्वारा सुमधुर भजनों के साथ कार्यकम का समापन होगा।


Jai Shri Ram


सभा संस्था समाचार

श्रीबालाजी जागरण मंडल द्वारा गर्ग संहिता कथा महाज्ञान  यज्ञ

कोलकता। श्री बालाजी जागरण मंडल की ओर से श्री गर्ग संहिता पुराण कथा महायज्ञ ज्ञान यज्ञ का सप्त दिवसीय आयोजन बिन्नानी भवन सभागार में किया गया। मंडल के संस्थापक श्री मुरारीलाल तोदी ने बताया की श्रद्धेय श्री विश्वनाथ नारायण पालेंदे जी महाराज (वाराणसी) ने 31 अगस्त 6 सितम्बर तक दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक अपनी ओजस्वी वाणी से भक्तों को कथा अमृत पान कराया। कोलकता में प्रथम बार आयोजित श्री गर्ग संहिता पुराण कथा को नित्य भरी संख्या में पधारकर भक्तों ने रसपान किया। संस्था के अध्यक्ष संदीप गर्ग, सचिव महेश कुमार तोदी तथा सदस्यों ने कथा व्यास पलेंदे जी तथा भक्तों का स्वागत किया।

DHARMMARG: Ganesh Chaturthi

DHARMMARG: Ganesh Chaturthi: Ganesh Chaturthi in 2012, 2013 Answer: The date of Ganesh Chaturthi falls on the fourth day after the new moon in the Hindu ...

DHARMMARG: FURSAT KE PAL: The Pride of Bihar Dr. Bidhanchandr...

DHARMMARG: FURSAT KE PAL: The Pride of Bihar Dr. Bidhanchandr...: FURSAT KE PAL: The Pride of Bihar Dr. Bidhanchandra Roy : बिहार के गौरव डॉ. बिधानचंद्र राय Bidhan Chandra Roy डॉ. बिधान चंद्र राय...

Manav Seva hi Ishwar Seva hai...

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